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तेरे मुहल्ले की गलियां!

>> Friday, February 29, 2008

के तेरे मुहल्ले की गलियां आज भी हमको बुलाती होंगी,
जब भी गुज़रते हैं हम उस पड़ोस से तो आवाज़ वो भी लगाती होंगी।
के सितम था जो उस रोज़ हुआ हमारे साथ में,
बस यही बात वो भी तो दोहराती होंगी।

मैं गए वक्त के मानिंद सा बन गया हूँ अब,
मुझे न याद करों लौट नही पाउँगा,
जिस तरह से तड़प रहा हूँ मैं आजकल,
मुझे याद करोगी तो तुम भी तड़प जाओगी।

हज़ार ख्वाब बुन रहा हूँ में तुम्हे बुलाने के लिए,
क्या अपनी गलियों की तरह तुम भी याद मुझे करती हो,
जिस तरह उम्मीद मुझे ये राहें दिलाती है,
क्या उस तरह तुम भी कोई उम्मीद सजाती हो,
कहीं ऐसा तो नही अब खुदा के बाद तुम भी मुझे तडपाओगी।

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